
महाराष्ट्र में जो हुआ, वो पहले भी कई जगह हो चुका है। राज्य दर राज्य यह एक ही स्क्रिप्ट है। हमने मध्य प्रदेश और कर्नाटक में दल-बदल और फूट के कारण गैर-भाजपा सरकारों को सत्ता से बेदखल होते देखा। महाराष्ट्र में यह कांग्रेस के बजाय शिवसेना के साथ हुआ लेकिन स्क्रिप्ट कमोबेश एक ही थी। मौजूदा संकट की शुरुआत से ही यह स्पष्ट था कि उद्धव ठाकरे बहुमत खो चुके हैं और यह उनकी ही पार्टी के विधायकों के विद्रोह के कारण हुआ था।
पिछले एक सप्ताह के राजनीतिक घटनाक्रम से दो संस्थागत मुद्दे सामने आए हैं। पहला- क्या अदालतों के हस्तक्षेप का कोई औचित्य रह गया है। दूसरा – दलबदल विरोधी कानून कितना सक्षम है। दोनों पर अलग-अलग बहस होनी चाहिए। इन संस्थाओं के विभिन्न पहलुओं पर विचार करते हुए तीन बड़े फैक्टर सामने आते हैं, जो इस पूरी राजनीति के केंद्र में रहे।
पहला यह कि प्रमुख पार्टी से निपटने के लिए क्या करना है। महाराष्ट्र में उद्धव सरकार के पतन ने एक बार फिर ये स्पष्ट किया है कि भाजपा विरोधी गठबंधन बनाने और उसे बनाए रखने में कितनी मुश्किलों का सामना करना पड़ सकता है। महा विकास अघाड़ी (एमवीए) अवसरवादी हो सकता है, यह अलग-अलग पार्टियों का गठबंधन हो सकता है लेकिन फिर भी यह एक राज्य स्तरीय प्रयोग था जिसमें पार्टियां बातचीत और सहमति से साथ आयी थीं। जहां एक दल कुछ ज्यादा ही मजबूत हो जाएं, वहां विपक्ष के पास गठबंधन के अवाला कोई रास्ता नहीं होता। एमवीए ऐसा ही एक गठबंधन था। बिहार में राजद-जद(यू) गठबंधन की विफलता के बाद, एमवीए ने गैर-बीजेपी हलकों में उम्मीद जगाई कि इस तरह के गठबंधन के जरिए भाजपा को सत्ता से बाहर रखा जा सकता है।
बिहार की तरह महाराष्ट्र में भी गैर-भाजपा गठबंधन का एक सहयोगी भाजपा का पूर्व सहयोगी था। बिहार में भाजपा की पूर्व सहयोगी जद(यू) भाजपा में के पास वापस चली गई। हालांकि महाराष्ट्र में शिवसेना नेतृत्व अभी भी भाजपा का विरोध कर रहा है। शिवसेना के अधिकांश विधायकों ने कांग्रेस और एनसीपी के बजाय भाजपा के साथ गठबंधन की मांग की। यह तर्क दिया गया कि शिवसेना का मुख्य मंच हिंदुत्व है इसलिए यह वैचारिक रूप से सुसंगत और आवश्यक है कि शिवसेना भाजपा के साथ गठबंधन करे। यह और बात है कि शिवसेना के बागियों की ओर से यह तर्क 30 महीने देर से आया! महाराष्ट्र के हालिया राजनीतिक संकट में एक तरह की विचारधारा वाली पार्टियों के एक साथ आने का तर्क और एकदलीय प्रभुत्व से उत्पन्न खतरे से अपने अस्तित्व को बचाने की चुनौती के बीच संघर्ष दिखा। उद्धव ठाकरे के इस्तीफे ने गैर-भाजपा गठबंधन बनाने की राजनीति को एक झटका दिया है। एमवीए सरकार के पतन ने भविष्य में अखिल भारतीय स्तर पर गैर-भाजपा गठबंधन बनने की संभावनाओं पर फिलहाल ब्रेक लगा दिया है।
दूसरा बिंदु जिस पर महाराष्ट्र संकट ने प्रकाश डाला है, वह है राज्य स्तरीय पार्टियों की दुर्दशा। उद्धव ठाकरे के अधिकांश विधायकों ने उनका साथ छोड़ दिया, उन्हें अपनी ही पार्टी के भीतर अलग-थलग कर दिया गया। इस समय शिवसेना का भविष्य काफी अनिश्चित लग रहा है लेकिन यह खतरा केवल शिवसेना पर नहीं है।
पिछले आठ सालों में भाजपा को दो मोर्चों पर विरोध का सामना करना पड़ रहा है। एक है कांग्रेस और दूसरा राज्य स्तरीय पार्टियां। कांग्रेस का सामना करना तो फिर भी भाजपा के लिए आसान रहा है लेकिन क्षेत्रीय पार्टियों ने अधिक मुश्किलें खड़ी की हैं। झामुमो से लेकर तृणमूल कांग्रेस तक राज्य की पार्टियां भाजपा के खिलाफ खड़ी दिखी हैं। लेकिन शिवसेना में विभाजन बताता है कि क्षेत्रीय दलों का भी भविष्य भी बहुत उज्ज्वल नहीं हैं। भाजपा को अपना प्रभुत्व बढ़ाने और मजबूत करने के लिए जरूरी है कि क्षेत्रीय दल का कम हों। भाजपा की इस आवश्यकता के संदर्भ में देखें तो शिवसेना का पतन एक ऐसी प्रवृत्ति का प्रतीक है जिससे भाजपा को लाभ हो सकता है।
1990 के दशक में क्षेत्रीय दल भाजपा की राजनीति के केंद्र में थे। तब भाजपा इन दलों के साथ गठबंधन कर अपनी संभावनाओं को बढ़ाने की कोशिश करती थी। लेकिन आज भाजपा का मुख्य लक्ष्य ही ऐसी पार्टियों को कमजोर करना या खत्म करना है। राज्य स्तर की पार्टियों में टूट या दल-बदल से कुछ चीजें तय हो जाती हैं। इससे या तो पार्टी कमजोर होगी या वो भाजपा का साथ देने को मजबूर होगी या राज्य की राजनीति में प्रमुख पार्टी के रूप में अपनी प्रासंगिकता खो देगी। महाराष्ट्र के सियासी संकट की ही बात करें तो दो अलग-अलग ग्रुप शिवसेना पर दावा कर रहा है। दशकों से शिवसेना ने जो जगह हासिल की है, उसके लिए महाराष्ट्र के दोनों वर्गों के बीच कड़ी टक्कर देखने को मिल रही है। ऐसे में हो सकता है अभी शिवसेना को जो प्रधानता मिली है, वो खो जाए। इस तरह शिवसेना की दुर्दशा अन्य क्षेत्रीय दलों के लिए एक चेतावनी है।
मौजूदा झटके के बाद शिवसेना को खुद में जान फूंकने में काफी वक्त लगेगा। पूरी संभावना है कि आने वाले कुछ समय तक यह राज्य की राजनीति में महत्वपूर्ण भूमिका नहीं निभा पाएगी। कर्नाटक में जनता दल (एस) एक उदाहरण है। जब राज्य की पार्टियां अपना स्थान खो देती हैं, तो भाजपा के लिए की राह आसान हो जाती है।
महाराष्ट्र की मौजूदा राजनीतिक जटिलताओं से सामने आया तीसरा बिन्दु है बागी विधायकों का तर्क। विद्रोह के इर्द-गिर्द बुनी गई कथा यह थी कि शिवसेना को दिवंगत सेना प्रमुख बालासाहेब ठाकरे ने हिंदुत्ववादी पार्टी के रूप में पार्टी को स्थापित किया। इसलिए हिंदुत्व को बनाए रखने के लिए भाजपा के साथ गठबंधन ही एकमात्र रास्ता है। जाहिर है कुछ इस तरह के ही संकेत भाजपा भी दे रही थी। गठबंधन टूटने के बाद से भाजपा ने शिवसेना पर लगातार यह आरोप लगाया कि उसने हिंदुत्व को छोड़ दिया। भाजपा की इस आलोचना से शिवसेना हमेशा असहज हुई। शिवसेना नेतृत्व को बार-बार हिंदुत्व के मुद्दों पर जोर देने के लिए मजबूर होना पड़ा। अयोध्या से लेकर सावरकर विवाद तक भाजपा ने शिवसेना कम मुखर होने के कारण घेरा। अब सत्ता से बाहर होने के बाद शिवसेना अपना पुराना स्थान हासिल करने के लिए एक बार फिर हिंदुत्व कार्ड को लपक सकती है।
भाजपा ने शिवसेना के साथ जो किया है, उससे दोनों दलों के बीच भविष्य में भी टकराव की स्थिति बनी रहेगी। अगर शिवसेना लम्बे समय तक हिन्दुत्व को लेकर बयानबाजी करेगी तो उससे भाजपा को महाराष्ट्र में हिंदुत्व को और लोकप्रिय बनाने में मदद मिलेगी। महाराष्ट्र की राजनीति में हिंदुत्व की विचारधारा का कब्जा हो जाएगा। इस तरह भाजपा न सिर्फ एक बड़े राज्य को नियंत्रित करेगी बल्कि शिवसेना से आमने-सामने होने पर वैचारिक बढ़त भी हासिल करेगी। महाराष्ट्र में भाजपा की वापसी एक और राज्य में सरकार बना लेना भर नहीं है। यह अपने आप में एक बहुमूल्य पुरस्कार है। एमवीए सरकार का पतन का प्रभाव सिर्फ महाराष्ट्र की राजनीति पर नहीं पड़ेगा। इससे पूरे देश की राजनीति पर व्यापक प्रभाव पड़ा है। इसने विपक्षी दलों की एकता के प्रयासों को धता बता दिया है। साथ ही क्षेत्रीय दलों पर छाए संकट को भी उजागर कर दिया है।